नव्हे चेटकी चाळकू द्रव्यभोंदू |
नव्हे निंदकू मत्सरू भक्तिमंदू ||
नव्हे उन्मतू वेसनी संगबाधू |
जनीं ज्ञानिया तोचि साधू अगाधू ||१८१||
काला जादू नहीं चालाकी नहीं पैसे की लालच नहीं
निंदा नहीं मत्सर नहीं भक्तों से धोखा नहीं
उन्मत्तता नहीं व्यसन नहीं विक्षेप नहीं
वही ज्ञानी अगाध दृष्टी वाला साधु हैं
नव्हे वाउगी चाहुटी काम पोटी |
क्रियेवीण वाचाळता तेचि मोठी ||
मुखे बोलिल्यासारखे चालताहे |
मना सद्गुरू तोचि शोधूनि पाहे ||१८२||
पैसे के लिए जो चुगलखोरी नहीं करता
जो क्रियाहीन बकवादी नहीं हैं
जो जैसा बोलता हैं वैसा करता हैं
हे मन तू ऐसे सद्गुरु की खोज कर
जनीं भक्त ज्ञानी विवेकी विरागी |
कृपाळू मनस्वी क्षमावंत योगी ||
प्रभू दक्ष व्युत्पन्न चातुर्य जाणे |
तयाचेनि योगे समाधान बाणे ||१८३||
जो भक्त हैं ज्ञानी हैं विवेकी हैं विरागी हैं
कृपालु हैं मनोनिग्रही हैं क्षमाशील हैं योगी हैं
प्रभु हैं दक्ष हैं चातुर्य और ग्रंथो का ज्ञाता हैं
आपको समाधान मिलेगा यदि आप उससे जुड जाते हैं
नव्हे तेचि जाले नसे तेचि आले |
कळो लागले सज्जनाचेनि बोले ||
अनिर्वाच्य ते वाच्य वाचे वदावे |
मना संत आनंत शोधीत जावे ||१८४||
जो नहीं हो सकता था होगा
सत्संग से सब समझ में आ जायेगा
अनिर्वाच्य की वाच्यता हो जाएगी
संतों की कृपा से अनंत को ढूँढ पाओगे
लपावे अती आदरे रामरूपी |
भयातीत निश्चीत ये स्वस्वरूपी ||
कदा तो जनीं पाहताही दिसेना |
सदा ऐक्य तो भिन्नभावे वसेना ||१८५||
केवल राम रहे आप न रहे
यह स्वरुप ही भयातीत और निश्चित हैं
लोगों में देखने से न दिखे
वो तो सदा एक हैं वहाँ भिन्नभाव कैसा
सदा सर्वदा राम सन्नीध आहे |
मना सज्जना सत्य शोधून पाहे ||
अखंडीत भेटी रघूराजयोगू |
मना सांडि रे मीपणाचा वियोगू ||१८६||
राम तो सदा सर्वदा वही हैं
हे सज्जन मन सत्य का अन्वेषण तो कर
रघुराज से तो अखण्डरूप से योग होता हैं
सिर्फ तेरा अहंकार तुझे छोड़ना होगा
भुते पिंड ब्रह्मांड हे ऐक्य आहे |
परी सर्वही स्वस्वरूपी न साहे ||
मना भासले सर्व काही पहावे |
परी संग सोडूनि सूखी रहावे ||१८७||
सब जीव पिंड और ब्रह्माण्ड एक हैं
स्वरुपस्थिति में अनुभूति करनी होती हैं
जो कुछ दिख रहा है सब देखे
लेकिन संग छोड़कर सुखी रहे
देहेभान हे ज्ञानशस्त्रे खुडावे |
विदेहीपणे भक्तिमार्गेचि जावे ||
विरक्तीबळे निंद्य सर्वै त्यजावे |
परी संग सोडूनि सूखे रहावे ||१८८||
अनुभूति ही देहासक्ति को काटेगी
देहासक्ति छूटेगी तभी भक्ति पंथ खुलेगा
वैराग्य के बल से निंदनीय कर्म त्याग दे
असंग बने रहे और सुखी रहे
मही निर्मिली देव तो ओळखावा |
जया पाहता मोक्ष तत्काळ जीवा ||
तया निर्गुणालागी गूणी पहावे |
परी संग सोडूनि सूखी रहावे ||१८९||
जिसने धरती बनाई उसे जाने
उसे जानते ही जीव मुक्त हो जाता हैं
गुणों से पर होने का रास्ता गुणों से ही जाता हैं
असंग बने रहे और सुखी रहे
नव्हे कार्यकर्ता नव्हे सृष्टिभर्ता |
परेहून पर्ता न लिंपे विवर्ता ||
तया निर्विकल्पासि कल्पीत जावे |
परी संग सोडूनि सूखी रहावे ||१९०||
कर्ता और सृष्टि का पालनकर्ता नहीं हैं
क्योंकि पर हैं असंग हैं और मायातीत हैं
कल्पनाशुन्य होने से ही निर्विकल्प तक पहुंचोगे
असंग बने रहे और सुखी रहे
नव्हे निंदकू मत्सरू भक्तिमंदू ||
नव्हे उन्मतू वेसनी संगबाधू |
जनीं ज्ञानिया तोचि साधू अगाधू ||१८१||
काला जादू नहीं चालाकी नहीं पैसे की लालच नहीं
निंदा नहीं मत्सर नहीं भक्तों से धोखा नहीं
उन्मत्तता नहीं व्यसन नहीं विक्षेप नहीं
वही ज्ञानी अगाध दृष्टी वाला साधु हैं
नव्हे वाउगी चाहुटी काम पोटी |
क्रियेवीण वाचाळता तेचि मोठी ||
मुखे बोलिल्यासारखे चालताहे |
मना सद्गुरू तोचि शोधूनि पाहे ||१८२||
पैसे के लिए जो चुगलखोरी नहीं करता
जो क्रियाहीन बकवादी नहीं हैं
जो जैसा बोलता हैं वैसा करता हैं
हे मन तू ऐसे सद्गुरु की खोज कर
जनीं भक्त ज्ञानी विवेकी विरागी |
कृपाळू मनस्वी क्षमावंत योगी ||
प्रभू दक्ष व्युत्पन्न चातुर्य जाणे |
तयाचेनि योगे समाधान बाणे ||१८३||
जो भक्त हैं ज्ञानी हैं विवेकी हैं विरागी हैं
कृपालु हैं मनोनिग्रही हैं क्षमाशील हैं योगी हैं
प्रभु हैं दक्ष हैं चातुर्य और ग्रंथो का ज्ञाता हैं
आपको समाधान मिलेगा यदि आप उससे जुड जाते हैं
नव्हे तेचि जाले नसे तेचि आले |
कळो लागले सज्जनाचेनि बोले ||
अनिर्वाच्य ते वाच्य वाचे वदावे |
मना संत आनंत शोधीत जावे ||१८४||
जो नहीं हो सकता था होगा
सत्संग से सब समझ में आ जायेगा
अनिर्वाच्य की वाच्यता हो जाएगी
संतों की कृपा से अनंत को ढूँढ पाओगे
लपावे अती आदरे रामरूपी |
भयातीत निश्चीत ये स्वस्वरूपी ||
कदा तो जनीं पाहताही दिसेना |
सदा ऐक्य तो भिन्नभावे वसेना ||१८५||
केवल राम रहे आप न रहे
यह स्वरुप ही भयातीत और निश्चित हैं
लोगों में देखने से न दिखे
वो तो सदा एक हैं वहाँ भिन्नभाव कैसा
सदा सर्वदा राम सन्नीध आहे |
मना सज्जना सत्य शोधून पाहे ||
अखंडीत भेटी रघूराजयोगू |
मना सांडि रे मीपणाचा वियोगू ||१८६||
राम तो सदा सर्वदा वही हैं
हे सज्जन मन सत्य का अन्वेषण तो कर
रघुराज से तो अखण्डरूप से योग होता हैं
सिर्फ तेरा अहंकार तुझे छोड़ना होगा
भुते पिंड ब्रह्मांड हे ऐक्य आहे |
परी सर्वही स्वस्वरूपी न साहे ||
मना भासले सर्व काही पहावे |
परी संग सोडूनि सूखी रहावे ||१८७||
सब जीव पिंड और ब्रह्माण्ड एक हैं
स्वरुपस्थिति में अनुभूति करनी होती हैं
जो कुछ दिख रहा है सब देखे
लेकिन संग छोड़कर सुखी रहे
देहेभान हे ज्ञानशस्त्रे खुडावे |
विदेहीपणे भक्तिमार्गेचि जावे ||
विरक्तीबळे निंद्य सर्वै त्यजावे |
परी संग सोडूनि सूखे रहावे ||१८८||
अनुभूति ही देहासक्ति को काटेगी
देहासक्ति छूटेगी तभी भक्ति पंथ खुलेगा
वैराग्य के बल से निंदनीय कर्म त्याग दे
असंग बने रहे और सुखी रहे
मही निर्मिली देव तो ओळखावा |
जया पाहता मोक्ष तत्काळ जीवा ||
तया निर्गुणालागी गूणी पहावे |
परी संग सोडूनि सूखी रहावे ||१८९||
जिसने धरती बनाई उसे जाने
उसे जानते ही जीव मुक्त हो जाता हैं
गुणों से पर होने का रास्ता गुणों से ही जाता हैं
असंग बने रहे और सुखी रहे
नव्हे कार्यकर्ता नव्हे सृष्टिभर्ता |
परेहून पर्ता न लिंपे विवर्ता ||
तया निर्विकल्पासि कल्पीत जावे |
परी संग सोडूनि सूखी रहावे ||१९०||
कर्ता और सृष्टि का पालनकर्ता नहीं हैं
क्योंकि पर हैं असंग हैं और मायातीत हैं
कल्पनाशुन्य होने से ही निर्विकल्प तक पहुंचोगे
असंग बने रहे और सुखी रहे
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