जनीं सर्वसूखी असा कोण आहे | var जगीं
विचारें मना तूंचि शोधूनि पाहें ||
मना त्वांचि रे पूर्वसंचीत केलें |
तयासारिखें भोगणें प्राप्त झालें ||११||
वह कौन हैं जिसे सब सुख हासिल हैं
थोड़ा सोचिये फिर बताइए
हम जो कुछ करते हैं
उसी का भुगतान अदा करना होता हैं
मना मानसी दुःख आणूं नको रे |
मना सर्वथा शोक चिंता नको रे ||
विवेकें देहेबुद्धि सोडूनि द्यावी |
विदेहीपणें मुक्ति भोगीत जावी ||१२||
मन को दुःखसे उत्पीड़ित क्यों करते हों
हर वक़्त शोक चिंता से क्या हासिल हैं
विवेक के द्वारा देह बंधन से छूटे
विदेह अवस्था से ही मुक्ति सम्भव हैं
मना सांग पां रावणा काय जालें |
अकस्मात तें राज्य सर्वै बुडालें ||
म्हणोनी कुडी वासना सांडि वेगीं |
बळें लागला काळ हा पाठिलागी ||१३||
रावण का क्या हश्र हुआ बताइए
सोने की लंका पल में ही तो खत्म हुई
इसीलिए वासना से ऊपर उठना ही पड़ेगा
काल तो बड़ी ही तेजी से पीछे पड़ा हैं
जिवा कर्मयोगें जनीं जन्म जाला |
परी शेवटीं काळमूखीं निमाला ||
महाथोर ते मृत्युपंथेंचि गेले |
कितीएक ते जन्मले आणि मेले ||१४||
अपने कर्म के प्रभाव से ही जीव जन्म लेता हैं
और अंत में मौत को प्राप्त होता हैं
सभी बड़ी हस्तियां भी इसी राह से जाती हैं
कोई गिनती नहीं आने जाने वालों की
मना पाहतां सत्य हे मृत्युभूमी |
जितां बोलती सर्वही जीव मी मी ||
चिरंजीव हे सर्वही मानिताती |
अकस्मात सांडूनिया सर्व जाती ||१५||
इस जगत में मृत्यु तो आनी ही हैं
फिर भी हर कोई अहंकार से फूल रहा हैं
सब को लगता हैं कि वो अमर हैं
एक पल में सब समाप्त हो जाता हैं
मरे एक त्याचा दुजा शोक वाहे |
अकस्मात तोही पुढे जात आहे ||
पुरेना जनीं लोभ रे क्षोभ त्यातें |
म्हणोनी जनीं मागुता जन्म घेते ||१६||
एक की मृत्यु पर दूसरा शोक करता हैं
जबकि वह भी मौत की ओर बढ़ रहा हैं
लोभ से क्षोभ होता हैं
जन्म मृत्यु का फेर चलता जाता हैं
मनीं मानवी व्यर्थ चिंता वहातें |
अकस्मात होणार होऊन जातें ||
घडे भोगणे सर्वही कर्मयोगें |
मतीमंद तें खेद मानी वियोगें ||१७||
आदमी चिंता करता हैं
होनी को कौन टाल सकता हैं
जो करना है सो भरना हैं
दूसरी सोच क्या काम की हैं
मना राघवेंवीण आशा नको रे |
मना मानवाची नको कीर्ति तूं रे ||
जया वर्णिती वेद शास्त्रें पुराणें |
तया वर्णिता सर्वही श्लाघ्यवाणे ||१८||
आशा तो केवल राम से ही हो
खुद के बड़प्पन की कोई गुंजाईश नहीं
जिसका वर्णन वेदों और शास्त्रों में हैं
क्यों न हम उसीकी बड़ाई करे
मना सर्वथा सत्य सांडूं नको रे |
मना सर्वथा मिथ्य मांडूं नको रे ||
मना सत्य ते सत्य वाचे वदावें |
मना मिथ्य ते मिथ्य सोडूनि द्यावें ||१९||
सत्य तो कायम रहेगा माने ना माने
मिथ्या का मंडन न करे
जुबान से सत्य वचन कहे
बेकार की बाते छोड़ दे
बहू हिंपुटी होईजे मायपोटीं |
नको रे मना यातना तेचि मोठी ||
निरोधें पचे कोंडिलें गर्भवासीं |
अधोमूख रे दुःख त्या बाळकासी ||२०||
जन्म मृत्यु के चक्र में क्यों फसतें हों
जो बड़ा वेदनादायी हैं
व्यर्थ में ही सहते हो
घुटन और अधोगति
विचारें मना तूंचि शोधूनि पाहें ||
मना त्वांचि रे पूर्वसंचीत केलें |
तयासारिखें भोगणें प्राप्त झालें ||११||
वह कौन हैं जिसे सब सुख हासिल हैं
थोड़ा सोचिये फिर बताइए
हम जो कुछ करते हैं
उसी का भुगतान अदा करना होता हैं
मना मानसी दुःख आणूं नको रे |
मना सर्वथा शोक चिंता नको रे ||
विवेकें देहेबुद्धि सोडूनि द्यावी |
विदेहीपणें मुक्ति भोगीत जावी ||१२||
मन को दुःखसे उत्पीड़ित क्यों करते हों
हर वक़्त शोक चिंता से क्या हासिल हैं
विवेक के द्वारा देह बंधन से छूटे
विदेह अवस्था से ही मुक्ति सम्भव हैं
मना सांग पां रावणा काय जालें |
अकस्मात तें राज्य सर्वै बुडालें ||
म्हणोनी कुडी वासना सांडि वेगीं |
बळें लागला काळ हा पाठिलागी ||१३||
रावण का क्या हश्र हुआ बताइए
सोने की लंका पल में ही तो खत्म हुई
इसीलिए वासना से ऊपर उठना ही पड़ेगा
काल तो बड़ी ही तेजी से पीछे पड़ा हैं
जिवा कर्मयोगें जनीं जन्म जाला |
परी शेवटीं काळमूखीं निमाला ||
महाथोर ते मृत्युपंथेंचि गेले |
कितीएक ते जन्मले आणि मेले ||१४||
अपने कर्म के प्रभाव से ही जीव जन्म लेता हैं
और अंत में मौत को प्राप्त होता हैं
सभी बड़ी हस्तियां भी इसी राह से जाती हैं
कोई गिनती नहीं आने जाने वालों की
मना पाहतां सत्य हे मृत्युभूमी |
जितां बोलती सर्वही जीव मी मी ||
चिरंजीव हे सर्वही मानिताती |
अकस्मात सांडूनिया सर्व जाती ||१५||
इस जगत में मृत्यु तो आनी ही हैं
फिर भी हर कोई अहंकार से फूल रहा हैं
सब को लगता हैं कि वो अमर हैं
एक पल में सब समाप्त हो जाता हैं
मरे एक त्याचा दुजा शोक वाहे |
अकस्मात तोही पुढे जात आहे ||
पुरेना जनीं लोभ रे क्षोभ त्यातें |
म्हणोनी जनीं मागुता जन्म घेते ||१६||
एक की मृत्यु पर दूसरा शोक करता हैं
जबकि वह भी मौत की ओर बढ़ रहा हैं
लोभ से क्षोभ होता हैं
जन्म मृत्यु का फेर चलता जाता हैं
मनीं मानवी व्यर्थ चिंता वहातें |
अकस्मात होणार होऊन जातें ||
घडे भोगणे सर्वही कर्मयोगें |
मतीमंद तें खेद मानी वियोगें ||१७||
आदमी चिंता करता हैं
होनी को कौन टाल सकता हैं
जो करना है सो भरना हैं
दूसरी सोच क्या काम की हैं
मना राघवेंवीण आशा नको रे |
मना मानवाची नको कीर्ति तूं रे ||
जया वर्णिती वेद शास्त्रें पुराणें |
तया वर्णिता सर्वही श्लाघ्यवाणे ||१८||
आशा तो केवल राम से ही हो
खुद के बड़प्पन की कोई गुंजाईश नहीं
जिसका वर्णन वेदों और शास्त्रों में हैं
क्यों न हम उसीकी बड़ाई करे
मना सर्वथा सत्य सांडूं नको रे |
मना सर्वथा मिथ्य मांडूं नको रे ||
मना सत्य ते सत्य वाचे वदावें |
मना मिथ्य ते मिथ्य सोडूनि द्यावें ||१९||
सत्य तो कायम रहेगा माने ना माने
मिथ्या का मंडन न करे
जुबान से सत्य वचन कहे
बेकार की बाते छोड़ दे
बहू हिंपुटी होईजे मायपोटीं |
नको रे मना यातना तेचि मोठी ||
निरोधें पचे कोंडिलें गर्भवासीं |
अधोमूख रे दुःख त्या बाळकासी ||२०||
जन्म मृत्यु के चक्र में क्यों फसतें हों
जो बड़ा वेदनादायी हैं
व्यर्थ में ही सहते हो
घुटन और अधोगति
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