Wednesday, 22 June 2016

समर्थ रामदास स्वामी कृत मनाचे श्लोक ४१-५० हिंदी अनुवाद सहित

बहू हिंडता सौख्य होणार नाही |
शिणावे परी नातुडे हीत काही ||
विचारे बरे अंतरा बोधवीजे |
मना सज्जना राघवी वस्ति कीजे ||४१||

बहोत भटकने से क्या हासिल होगा
सिर्फ थक जाओगे कुछ न पाओगे
सोचिए और अंतःकरण में बोध जगाइए
सज्जनो के संग राम में रंग जाइये

बहुतांपरी हेचि आता धरावे |
रघूनायका आपुलेसे करावे ||
दिनानाथ हे तोडरी ब्रीद गाजे |
मना सज्जना राघवी वस्ति कीजे ||४२||

अभी और विकल्प नहीं ढूंढने हैं
रामजी को अपना बनाना हैं
जिसके पैरों की आहट कहती हैं कि वह दीनानाथ हैं
सज्जनो के संग उसी राम में रंग जाना हैं

मना सज्जना एक जीवी धरावे |
जनीं आपुले हीत तुवां करावे ||
रघूनायकावीण बोलो नको हो |
सदा मानसी तो निजध्यास राहो ||४३||

हे सत्यशील मन अब एक ही बात को पकड़ ले
इस लोक में अपने हित को तू साध ले
जिसमे राम न हो वो बात न हो
मेरे मन अब तो स्वरुप में ही एकाग्र हो जा

मना रे जनीं मौनमुद्रा धरावी |
कथा आदरे राघवाची करावी ||
नसे राम ते धाम सोडूनि द्यावे |
सुखालागि आरण्य सेवीत जावे ||४४||

मेरे मन लोगो के बिच बहोत बतिया के क्या मिलेगा
लोगों में तो आदरपूर्वक रामकथा का गान कर
जिस घर में राम नहीं वहाँ तेरा काम नहीं
सुख तो सहजता से प्रकृति के सान्निध्य में ही मिलेगा

जयाचेनि संगे समाधान भंगे |
अहंता अकस्मात येऊनि लागे ||
तये संगतीची जनीं कोण गोडी |
जिये संगतीने मती राम सोडी ||४५||

जिसके संग चित्त की समता टूटती हैं
चित्त में अचानक अहंकार आता हैं
ऐसे संग की भला क्या मिठास हैं
जो संग बुद्धि को राम से अलग करता हैं

मना जे घडी राघवेवीण गेली |
जनीं आपुली ते तुवा हानि केली ||
रघूनायकावीण तो शीण आहे |
जनीं दक्ष तो लक्ष लावूनि पाहे ||४६||

मेरे मन वो पल जिनमे राम नहीं हैं
ऐसे पल तो केवल हानि पहुंचाते हैं
एक राम को भूलने से तो सब श्रम ही हैं
जो जागृत हैं उसका ध्यान राम पर हैं

मनीं लोचनी श्रीहरी तोचि पाहे |
जनीं जाणता भक्त होऊनि राहे ||
गुणी प्रीति राखे क्रमूं साधनाचा |
जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा ||४७||

श्रीहरि नयन मन में तब दिखेंगे
जब ह्रदय में भक्ति जागेगी
गुणों में प्रीती और साधना बनाए रखना
तभी तो सर्वोत्तम के दास माने जाओगे

सदा देवकाजी झिजे देह ज्याचा |
सदा रामनामे वदे नित्य वाचा ||
स्वधर्मेचि चाले सदा उत्तमाचा |
जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा ||४८||

ईश्वरीय कार्य के लिए जो समर्पित हैं
जिसकी जिव्हा पर निरन्तर राम नाम हैं
जो स्वधर्म पर उत्तमता से अटल हैं
वही सर्वोत्तम का दास माना जायेगा

सदा बोलण्यासारिखे चालताहे |
अनेकी सदा एक देवासि पाहे ||
सगूणी भजे लेश नाही भ्रमाचा |
जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा ||४९||

जो वही करता हैं जो वह बोलता हैं
अनेक रूपों में भी जो एक परमात्मा का दर्शन करता हैं
परमात्मा को सगुण साकार रूप में बिना भ्रम के भजता हैं
वही तो सर्वोत्तम का दास माना जायेगा

नसे अंतरी काम नानाविकारी |
उदासीन जो तापसी ब्रह्मचारी ||
निवाला मनीं लेश नाही तमाचा |
जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा ||५०||

जिसके अंतर में कामादि विकार नहीं हैं
जो सर्वव्यापी ब्रह्म से एकरूप और द्वन्द्वों से ऊपर हैं
जिसका मन सधा हुआ हैं और तामसिक नहीं हैं
वही तो सर्वोत्तम का दास कहलाता हैं

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