Thursday, 30 June 2016

समर्थ रामदास स्वामी कृत मनाचे श्लोक १६१-१७० हिंदी अनुवाद सहित

अहंतागुणे सर्वही दुःख होते |
मुखे बोलिले ज्ञान ते व्यर्थ जाते ||
सुखी राहता सर्वही सूख आहे |
अहंता तुझी तुंची शोधून पाहे ||१६१||
अहंकार सब प्रकार से दुखदायी हैं
जो मुंह से कहा गया वह ज्ञान व्यर्थ हो जाता हैं
सहजता ही सुख देगी
अहंता से कुछ हासिल न होगा

अहंतागुणे नीति सांडी विवेकी |
अनीतीबळे श्लाघ्यता सर्व लोकी ||
परी अंतरी सर्वही साक्ष येते |
प्रमाणांतरे बुद्धि सांडूनि जाते ||१६२||
बुद्धिजीवी भी अहंकारवश निति त्याग देते हैं
इससे अच्छाई अनीति का शिकार हो जाती हैं
हमारा अंतःकरण इस बात का साक्षी हैं
इसके बावजूद भी यदि अहंकार करते हैं तो बुद्धिनाश होता हैं

देहेबुद्धिचा निश्चयो दृढ जाला |
देहातीत ते हीत सांडीत गेला ||
देहेबुद्धि ते आत्मबुद्धि करावी |
सदा संगती सज्जनाची धरावी ||१६३||
देह में यदि तीव्र आसक्ति हैं
तो देहातीत अवस्था को चूक जाओगे
आसक्ति देह में नहीं सर्वव्यापी आत्मा में हो
इसकेलिए हमेशा सज्जनों के संग रहना होगा

मने कल्पिला वीषयो सोडवावा |
मने देव निर्गूण तो ओळखावा ||
मने कल्पिता कल्पना ते सरावी |
सदा संगती सज्जनाची धरावी ||१६४||
विषय कल्पना में परमात्मा नहीं होगा
वह तो निर्गुण निराकार हैं
कल्पनाओं के जंजाल को समेटना होगा

देहादीक प्रपंच हा चिंतियेला |
परी अंतरी लोभ निश्चित ठेला ||
हरीचिंतने मुक्तिकांता वरावी |
सदा संगती सज्जनाची धरावी ||१६५||
देह और उसके प्रपंच का बहोत चिंतन किया
लेकिन भीतर के लोभ में कोई कमी नहीं आई
परमात्मा के चिंतन से ही मुक्ति सम्भव हैं
हमेशा सज्जनों के संग में रहना होगा

अहंकार विस्तारला या देहाचा |
स्त्रियापुत्रमित्रादिके मोह त्यांचा ||
बळे भ्रांति हे जन्मचिंता हरावी |
सदा संगती सज्जनाची धरावी ||१६६||
देह के अहंकार का विस्तार तो देखिये
पत्नी पुत्र मित्र और उनका मोह
उन चिंताओं का निवारण करे जिन्हे भ्रान्ति ने जन्म दिया
हमेशा सज्जनों के संग में रहे

बरा निश्चयो शाश्वताचा करावा |
म्हणे दास संदेह तो वीसरावा ||
घडीने घडी सार्थकाची धरावी |
सदा संगती सज्जनाची धरावी ||१६७||
निश्चय तो शाश्वत तत्व में होना चाहिए
संदेह को भूलना ही उचित हैं
अपने एक एक पल को सार्थक करे
सदा सज्जनों का संग धरे

करी वृत्ती जो संत तो संत जाणा |
दुराशागुणे जो नव्हे दैन्यवाणा ||
उपाधी देहेबुद्धीते वाढवीते |
परी सज्जना केवि बाधू शके ते ||१६८||
उसे ही संत माने जिसकी वृत्ति संत हो गयी
जो दुराशा के प्रभाव में भिखमंगा न हो
उपाधि से देह में आसक्ती बढ़ेगी
लेकिन एक सज्जन को उपाधि से कोई बंधन न होगा

नसे अंत आनंत संता पुसावा |
अहंकारविस्तार हा नीरसावा ||
गुणेवीण निर्गूण तो आठवावा |
देहेबुद्धिचा आठवू नाठवावा ||१६९||
जो बेअंत और अनन्त है उसे संत से पता करे
अपने बढ़ते हुए अहंकार को भगाए
गुणातीत निर्गुण की ओर गति करे
देह आसक्ति से विमुख हो जाए

देहेबुद्धि हे ज्ञानबोधे त्यजावी |
विवेके तये वस्तुची भेटी घ्यावी ||
तदाकार हे वृत्ति नाही स्वभावे |
म्हणोनि सदा तेचि शोधीत जावे ||१७०||
देहबुद्धि को ज्ञानबोध से त्याग दे
विवेक से निराकार की ओर गति करे
देहासक्ति हमारा स्वभाव नहीं हैं
हमारे स्वभाव का अन्वेषण करे

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