Thursday, 30 June 2016

समर्थ रामदास स्वामी कृत मनाचे श्लोक १९१-२०५ हिंदी अनुवाद सहित

देहेबुद्धिचा निश्चयो ज्या ढळेना |
तया ज्ञान कल्पांतकाळी कळेना ||
परब्रह्म ते मीपणे आकळेना |
मनी शून्य अज्ञान हे मावळेना ||१९१||
जिसकी देहासक्ति छूटती नहीं हैं
उसे कल्पान्त तक भी ज्ञान न होगा
अहंकारी को परब्रह्म ज्ञात नहीं हो सकता
जड़ता अज्ञान तबतक मिट नहीं सकता

मना ना कळे ना ढळे रूप ज्याचे |
दुजेवीण ते ध्यान सर्वोत्तमाचे ||
तया खूण ते हीन दृष्टांत पाहे |
तेथे संग निःसंग दोन्ही न साहे ||१९२||
उसका रूप तो समझता नहीं ना ही ढलता हैं
द्वैत के ऊपर उठना ही सर्वोत्तम ज्ञान हैं
दृष्टान्तों से इशारे करके क्या होगा
वह न तो संग हैं न ही निसंग हैं

नव्हे जाणता नेणता देवराणा |
न ये वर्णिता वेदशास्त्रा पुराणा ||
नव्हे दृश्य अदृश्य साक्षी तयाचा |
श्रुती नेणती नेणती अंत त्याचा ||१९३||
जानना या न जानना परमात्मा में नहीं होता
उसका वर्णन वेद शस्त्र पुराण नहीं कर सकते
दृश्य या अदृश्य नहीं हैं साक्षी हैं
श्रुति नेति नेति ही करती हैं

वसे हृदयी देव तो कोण कैसा |
पुसे आदरे साधकू प्रश्न ऐसा ||
देहे टाकिता देव कोठे रहातो |
परी मागुता ठाव कोठे पहातो ||१९४||
ह्रदय में रहनेवाला परमात्मा कैसा हैं
ऐसा प्रश्न साधक द्वारा बड़े आदरसे हुआ हैं
देह त्याग के बाद वो तत्व कहाँ जाता है
खुदकी पहचान कैसे बनाए रखता हैं

वसे हृदयी देव तो जाण ऐसा |
नभाचेपरी व्यापकू जाण तैसा ||
सदा संचला येत ना जात काही |
तयावीण कोठे रिता ठाव नाही ||१९५||
हृदयस्थ परमात्मा को तो ऐसा जानो
उसे आकाश की तरह व्यापक जानो
जो स्थिर हैं कोई आना जाना नहीं
जिसके सिवा कही कुछ नहीं हैं

नभी वावरे जो अणूरेणु काही |
रिता ठाव या राघवेवीण नाही ||
तया पाहता पाहता तेंचि जाले |
तेथे लक्ष आलक्ष सर्वै बुडाले ||१९६||
नभ में जितने भी अणु रेणु हैं
इस राघव को छोड़कर कही कुछ नहीं
उसे खोजने वाले वही हो जाते हैं
लक्ष्य अलक्ष्य का भेद जहाँ समाप्त होता हैं

नभासारिखे रूप या राघवाचे |
मनी चिंतिता मूळ तूटे भवाचे ||
तया पाहता देहबुद्धि उरेना |
सदा सर्वदा आर्त पोटी पुरेना ||१९७||
राघव तो नभ के सामान व्यापक हैं
उसके चिंतन से माया की जड़ें ही कट जाती हैं
जिसके साक्षात्कार के बाद देह की आसक्ति छूटती हैं
ब्रह्मसाक्षात्कार भी नित नूतन होता हैं

नभे व्यापिले सर्व सृष्टीस आहे |
रघूनायका ऊपमा ते न साहे ||
दुजेवीण जो तोचि तो हा स्वभावे |
तया व्यापकू व्यर्थ कैसे म्हणावे ||१९८||
नभ ने पूरी सृष्टि को व्यापा हुआ हैं
रघुनायक को यह उपमा उचित न होगी
दूसरा कोई हैं ही नहीं अपने स्वभाव में हैं
उसे व्यपक व्यर्थ ही क्यों कहे

अती जीर्ण विस्तीर्ण ते रूप आहे |
तेथे तर्क संपर्क तोही न साहे ||
अती गूढ ते दृश्य तत्काळ सोपे |
दुजेवीण जे खूण स्वामिप्रतापे ||१९९||
अति सनातन और व्यापक तत्व हैं
तर्क या संपर्क सम्भव नहीं हैं
अत्यंत गूढ़ हैं अत्यंत सरल हो सकता हैं
द्वैतभाव तो परमात्मा की कृपा से ही मिटेगा

कळे आकळे रूप ते ज्ञान होता |
तेथे आटली सर्वसाक्षी अवस्था ||
मना उन्मनी शब्द कुंठीत राहे |
तो रे तोचि तो राम सर्वत्र पाहे ||२००||
समझ आ जायेगा जब बोध जागेगा
सिर्फ साक्षी अवस्था ही बनी रहेगी
मन उन्मन हो जायेगा वाणी मौन होगी
सब ओर केवल राघव ही राघव होगा

कदा ओळखीमाजि दूजे दिसेना |
मनी मानसी द्वैत काही वसेना ||
बहूतां दिसां आपली भेटि जाली |
विदेहीपणे सर्व काया निवाली ||२०१||
अब कोई दूसरा हैं ही नहीं
द्वैतभाव कोई मन में न रहा
बहोत दिनों के बाद देहासक्ति छूटी
अद्भुत शांति का लाभ हुआ

मना गूज रे तूज हे प्राप्त झाले |
परी अंतरी पाहिजे यत्न केले ||
सदा श्रवणे पाविजे निश्चयासी |
धरी सज्जनीं संगती धन्य होसी ||२०२||
तुझसे अत्यंत गुह्य बात कही हैं
लेकिन यत्न तो तुम्हे ही करना हैं
इसके श्रवण से निश्चय दृढ़ होगा
सज्जनों का संग धरो और धन्य हो जाओ

मना सर्वही संग सोडूनि द्यावा |
अती आदरे सज्जनाचा धरावा ||
जयाचेनि संगे महादुःख भंगे |
जनीं साधनेवीण सन्मार्ग लागे ||२०३||
संग छोडिए असंग हो जाइये
सज्जनों के सानिध्य में रहिये
आपके सभी दुखों का अंत होगा
सहज तपस्या से सन्मार्ग मिलेगा

मना संग हा सर्वसंगास तोडी |
मना संग हा मोक्ष तात्काळ जोडी ||
मना संग हा साधना शीघ्र सोडी |
मना संग हा द्वैत निःशेष मोडी ||२०४||
यह संग सभी संग से तोड़ेगा
यह संग मुक्ति से जोड़ेगा
साधना शीघ्र ही सफल हो जाएगी
द्वैत का नामोनिशान नहीं रहेगा

मनाची शते ऐकता दोष जाती |
मतीमंद ते साधना योग्य होती ||
चढे ज्ञान वैराग्य सामर्थ्य अंगी |
म्हणे दास विश्वासता मुक्ति भोगी ||२०५||
इन श्लोकों को पढ़ने से मन के दोष जायेंगे
मंदमति साधना के योग्य हो जायेंगे
ज्ञान वैराग्य सामर्थ्य पाओगे
पूर्ण विश्वास से मुक्ति मिलेगी

समर्थ रामदास स्वामी कृत मनाचे श्लोक १८१-१९० हिंदी अनुवाद सहित

नव्हे चेटकी चाळकू द्रव्यभोंदू |
नव्हे निंदकू मत्सरू भक्तिमंदू ||
नव्हे उन्मतू वेसनी संगबाधू |
जनीं ज्ञानिया तोचि साधू अगाधू ||१८१||
काला जादू नहीं चालाकी नहीं पैसे की लालच नहीं
निंदा नहीं मत्सर नहीं भक्तों से धोखा नहीं
उन्मत्तता नहीं व्यसन नहीं विक्षेप नहीं
वही ज्ञानी अगाध दृष्टी वाला साधु हैं

नव्हे वाउगी चाहुटी काम पोटी |
क्रियेवीण वाचाळता तेचि मोठी ||
मुखे बोलिल्यासारखे चालताहे |
मना सद्गुरू तोचि शोधूनि पाहे ||१८२||
पैसे के लिए जो चुगलखोरी नहीं करता
जो क्रियाहीन बकवादी नहीं हैं
जो जैसा बोलता हैं वैसा करता हैं
हे मन तू ऐसे सद्गुरु की खोज कर

जनीं भक्त ज्ञानी विवेकी विरागी |
कृपाळू मनस्वी क्षमावंत योगी ||
प्रभू दक्ष व्युत्पन्न चातुर्य जाणे |
तयाचेनि योगे समाधान बाणे ||१८३||
जो भक्त हैं ज्ञानी हैं विवेकी हैं विरागी हैं
कृपालु हैं मनोनिग्रही हैं क्षमाशील हैं योगी हैं
प्रभु हैं दक्ष हैं चातुर्य और ग्रंथो का ज्ञाता हैं
आपको समाधान मिलेगा यदि आप उससे जुड जाते हैं

नव्हे तेचि जाले नसे तेचि आले |
कळो लागले सज्जनाचेनि बोले ||
अनिर्वाच्य ते वाच्य वाचे वदावे |
मना संत आनंत शोधीत जावे ||१८४||
जो नहीं हो सकता था होगा
सत्संग से सब समझ में आ जायेगा
अनिर्वाच्य की वाच्यता हो जाएगी
संतों की कृपा से अनंत को ढूँढ पाओगे

लपावे अती आदरे रामरूपी |
भयातीत निश्चीत ये स्वस्वरूपी ||
कदा तो जनीं पाहताही दिसेना |
सदा ऐक्य तो भिन्नभावे वसेना ||१८५||
केवल राम रहे आप न रहे
यह स्वरुप ही भयातीत और निश्चित हैं
लोगों में देखने से न दिखे
वो तो सदा एक हैं वहाँ भिन्नभाव कैसा

सदा सर्वदा राम सन्नीध आहे |
मना सज्जना सत्य शोधून पाहे ||
अखंडीत भेटी रघूराजयोगू |
मना सांडि रे मीपणाचा वियोगू ||१८६||
राम तो सदा सर्वदा वही हैं
हे सज्जन मन सत्य का अन्वेषण तो कर
रघुराज से तो अखण्डरूप से योग होता हैं
सिर्फ तेरा अहंकार तुझे छोड़ना होगा

भुते पिंड ब्रह्मांड हे ऐक्य आहे |
परी सर्वही स्वस्वरूपी न साहे ||
मना भासले सर्व काही पहावे |
परी संग सोडूनि सूखी रहावे ||१८७||
सब जीव पिंड और ब्रह्माण्ड एक हैं
स्वरुपस्थिति में अनुभूति करनी होती हैं
जो कुछ दिख रहा है सब देखे
लेकिन संग छोड़कर सुखी रहे

देहेभान हे ज्ञानशस्त्रे खुडावे |
विदेहीपणे भक्तिमार्गेचि जावे ||
विरक्तीबळे निंद्य सर्वै त्यजावे |
परी संग सोडूनि सूखे रहावे ||१८८||
अनुभूति ही देहासक्ति को काटेगी
देहासक्ति छूटेगी तभी भक्ति पंथ खुलेगा
वैराग्य के बल से निंदनीय कर्म त्याग दे
असंग बने रहे और सुखी रहे

मही निर्मिली देव तो ओळखावा |
जया पाहता मोक्ष तत्काळ जीवा ||
तया निर्गुणालागी गूणी पहावे |
परी संग सोडूनि सूखी रहावे ||१८९||
जिसने धरती बनाई उसे जाने
उसे जानते ही जीव मुक्त हो जाता हैं
गुणों से पर होने का रास्ता गुणों से ही जाता हैं
असंग बने रहे और सुखी रहे

नव्हे कार्यकर्ता नव्हे सृष्टिभर्ता |
परेहून पर्ता न लिंपे विवर्ता ||
तया निर्विकल्पासि कल्पीत जावे |
परी संग सोडूनि सूखी रहावे ||१९०||
कर्ता और सृष्टि का पालनकर्ता नहीं हैं
क्योंकि पर हैं असंग हैं और मायातीत हैं
कल्पनाशुन्य होने से ही निर्विकल्प तक पहुंचोगे
असंग बने रहे और सुखी रहे

समर्थ रामदास स्वामी कृत मनाचे श्लोक १७१-१८० हिंदी अनुवाद सहित

असे सार साचार ते चोरलेसे |
इही लोचनी पाहता दृश्य भासे ||
निराभास निर्गूण ते आकळेना |
अहंतागुणे कल्पिताही कळेना ||१७१||
सब बातों का सार जो सदाचार हैं वो दूर हो गया
मूलतत्व तो सामान्य दृष्टि से नहीं दिखेगा
जो निर्गुण निराभास हैं उसका आकलन कैसे होगा
अहंकार युक्त चित्त की कल्पनाओं में वो आने वाला नहीं

स्फुरे वीषयी कल्पना ते अविद्या |
स्फुरे ब्रह्म रे जाण माया सुविद्या ||
मुळी कल्पना दो रुपे तेचि जाली |
विवेके तरी स्वस्वरूपी मिळली ||१७२||
अविद्या विषयों में आसक्ति बढ़ाएगी
सुविद्या ब्रह्म की ओर गति करेगी
कल्पना से द्वैत बना रहेगा
विवेकसे ही स्वरुप में स्थित हो सकोगे

स्वरूपी उदेला अहंकार राहो |
तेणे सर्व आच्छादिले व्योम पाहो ||
दिशा पाहता ते निशा वाढताहे |
विवेके विचारे विवंचूनि पाहे ||१७३||
यदि अहंकार छोड़ दोंगे तो स्वरुप को जानोगे
हर तरफ तो वही तत्व है
अहंकार कुछ देखने नहीं देता
विवेक और विचार से ढूँढना होगा

जया चक्षुने लक्षिता लक्षवेना |
भवा भक्षिता रक्षिता रक्षवेना ||
क्षयातीत तो अक्षयी मोक्ष देतो |
दयादक्ष तो साक्षिने पक्ष घेतो ||१७४||
चर्म चक्षु जिसे देख नहीं सकते
माया के शिकंजे से आप बच नहीं सकते
आप अक्षय मुक्ति का पद पा सकते हैं
परमात्मा साक्षीरूप होते हुए भी करुणा करते हैं

विधी निर्मिता लीहितो सर्व भाळी |
परी लीहितो कोण त्याचे कपाळी ||
हरू जाळितो लोक संहारकाळी |
परी शेवटी शंकरा कोण जाळी ||१७५||
ब्रह्माजी जो सबके भाल पर लिखते हैं
उनके भाल पर जो लिखता हैं
शिवजी लोकों को प्रलयकाल में भस्म करते हैं
लेकिन वो भी जहाँ विश्राम पाते हैं

जगी द्वादशादित्य हे रुद्र अक्रा |
असंख्यात संख्या करी कोण शक्रा ||
जगी देव धुंडाळिता आढळेना |
जगी मुख्य तो कोण कैसा कळेना ||१७६||
रचना में १२ आदित्य और ११ रूद्र हैं
इंद्र तो असंख्य हैं कोई गिनती नहीं
परमात्मा तो ढूंढने से दिखता नहीं
मुख्य नियंता तो समझ में नहीं आ रहा

तुटेना फुटेना कदा देवराणा |
चळेना ढळेना कदा दैन्यवाणा ||
कळेना कळेना कदा लोचनासी |
वसेना दिसेना जगी मीपणासी ||१७७||
परम तत्व टूटता फूटता नहीं हैं
उसमे चलना ढलना और दीनता नहीं हैं
क्या भला उसे अपने आँखों से देख पाओगे
अनुभूति नहीं होगी न दिखेगा जबतक अहंकार हैं

जया मानला देव तो पूजिताहे |
परी देव शोधूनि कोणी न पाहे ||
जगी पाहता देव कोट्यानुकोटी |
जया मानली भक्ति जे तेचि मोठी ||१७८||
लोग तो भगवान को मानते हैं और पूजते हैं
स्वरुप अनुसंधान कोई नहीं करता
लोगोंने करोड़ों भगवान बनाए हैं
जहाँ जिसका भाव हैं वहां उसका देव हैं

तिन्ही लोक जेथूनि निर्माण झाले |
तया देवरायासि कोणी न बोले ||
जगी थोरला देव तो चोरलासे |
गुरूवीण तो सर्वथाही न दीसे ||१७९||
जहाँ से तीनो लोकों की उत्पत्ति हुई हैं
उस भगवान् से क्यों कोई नहीं बोलता
उस परमतत्त्व की अनुभूति तब तक नहीं होती
जबतक आप पर गुरुकृपा नहीं होती

गुरु पाहता पाहता लक्ष कोटी |
बहूसाल मंत्रावळी शक्ति मोठी ||
मनी कामना चेटके धातमाता |
जनीं व्यर्थ रे तो नव्हे मुक्तिदाता ||१८०||
गुरु तो लाखो करोडो की तादाद में है
उनके पास तो बड़े बड़े मंत्रो की शक्ति हैं
उनके मन में कामनाएं होती हैं और वे काला जादू करते हैं
ये गुरु थोथे हैं और मुक्ति नहीं दे सकते

समर्थ रामदास स्वामी कृत मनाचे श्लोक १६१-१७० हिंदी अनुवाद सहित

अहंतागुणे सर्वही दुःख होते |
मुखे बोलिले ज्ञान ते व्यर्थ जाते ||
सुखी राहता सर्वही सूख आहे |
अहंता तुझी तुंची शोधून पाहे ||१६१||
अहंकार सब प्रकार से दुखदायी हैं
जो मुंह से कहा गया वह ज्ञान व्यर्थ हो जाता हैं
सहजता ही सुख देगी
अहंता से कुछ हासिल न होगा

अहंतागुणे नीति सांडी विवेकी |
अनीतीबळे श्लाघ्यता सर्व लोकी ||
परी अंतरी सर्वही साक्ष येते |
प्रमाणांतरे बुद्धि सांडूनि जाते ||१६२||
बुद्धिजीवी भी अहंकारवश निति त्याग देते हैं
इससे अच्छाई अनीति का शिकार हो जाती हैं
हमारा अंतःकरण इस बात का साक्षी हैं
इसके बावजूद भी यदि अहंकार करते हैं तो बुद्धिनाश होता हैं

देहेबुद्धिचा निश्चयो दृढ जाला |
देहातीत ते हीत सांडीत गेला ||
देहेबुद्धि ते आत्मबुद्धि करावी |
सदा संगती सज्जनाची धरावी ||१६३||
देह में यदि तीव्र आसक्ति हैं
तो देहातीत अवस्था को चूक जाओगे
आसक्ति देह में नहीं सर्वव्यापी आत्मा में हो
इसकेलिए हमेशा सज्जनों के संग रहना होगा

मने कल्पिला वीषयो सोडवावा |
मने देव निर्गूण तो ओळखावा ||
मने कल्पिता कल्पना ते सरावी |
सदा संगती सज्जनाची धरावी ||१६४||
विषय कल्पना में परमात्मा नहीं होगा
वह तो निर्गुण निराकार हैं
कल्पनाओं के जंजाल को समेटना होगा

देहादीक प्रपंच हा चिंतियेला |
परी अंतरी लोभ निश्चित ठेला ||
हरीचिंतने मुक्तिकांता वरावी |
सदा संगती सज्जनाची धरावी ||१६५||
देह और उसके प्रपंच का बहोत चिंतन किया
लेकिन भीतर के लोभ में कोई कमी नहीं आई
परमात्मा के चिंतन से ही मुक्ति सम्भव हैं
हमेशा सज्जनों के संग में रहना होगा

अहंकार विस्तारला या देहाचा |
स्त्रियापुत्रमित्रादिके मोह त्यांचा ||
बळे भ्रांति हे जन्मचिंता हरावी |
सदा संगती सज्जनाची धरावी ||१६६||
देह के अहंकार का विस्तार तो देखिये
पत्नी पुत्र मित्र और उनका मोह
उन चिंताओं का निवारण करे जिन्हे भ्रान्ति ने जन्म दिया
हमेशा सज्जनों के संग में रहे

बरा निश्चयो शाश्वताचा करावा |
म्हणे दास संदेह तो वीसरावा ||
घडीने घडी सार्थकाची धरावी |
सदा संगती सज्जनाची धरावी ||१६७||
निश्चय तो शाश्वत तत्व में होना चाहिए
संदेह को भूलना ही उचित हैं
अपने एक एक पल को सार्थक करे
सदा सज्जनों का संग धरे

करी वृत्ती जो संत तो संत जाणा |
दुराशागुणे जो नव्हे दैन्यवाणा ||
उपाधी देहेबुद्धीते वाढवीते |
परी सज्जना केवि बाधू शके ते ||१६८||
उसे ही संत माने जिसकी वृत्ति संत हो गयी
जो दुराशा के प्रभाव में भिखमंगा न हो
उपाधि से देह में आसक्ती बढ़ेगी
लेकिन एक सज्जन को उपाधि से कोई बंधन न होगा

नसे अंत आनंत संता पुसावा |
अहंकारविस्तार हा नीरसावा ||
गुणेवीण निर्गूण तो आठवावा |
देहेबुद्धिचा आठवू नाठवावा ||१६९||
जो बेअंत और अनन्त है उसे संत से पता करे
अपने बढ़ते हुए अहंकार को भगाए
गुणातीत निर्गुण की ओर गति करे
देह आसक्ति से विमुख हो जाए

देहेबुद्धि हे ज्ञानबोधे त्यजावी |
विवेके तये वस्तुची भेटी घ्यावी ||
तदाकार हे वृत्ति नाही स्वभावे |
म्हणोनि सदा तेचि शोधीत जावे ||१७०||
देहबुद्धि को ज्ञानबोध से त्याग दे
विवेक से निराकार की ओर गति करे
देहासक्ति हमारा स्वभाव नहीं हैं
हमारे स्वभाव का अन्वेषण करे

समर्थ रामदास स्वामी कृत मनाचे श्लोक १५१-१६० हिंदी अनुवाद सहित

खरे शोधिता शोधिता शोधिताहे |
मना बोधिता बोधिता बोधिताहे ||
परी सर्वही सज्जनाचेनि योगे |
बरा निश्चयो पाविजे सानुरागे ||१५१||
सत्य को खोजे खोजे और खोजे
मन का बोध करे बोध करे बोध करे
सब कुछ सज्जनों के संग से ही सम्भव है
निश्चय और अनुराग हैं तो खोज पूरी होगी

बहूतांपरी कूसरी तत्त्वझाडा |
परी अंतरी पाहिजे तो निवाडा ||
मना सार साचार ते वेगळे रे |
समस्तांमधे एक ते आगळे रे ||१५२||
दूसरों को तो तत्व बोध झाड़ सकते हैं
लेकिन आपके भीतर क्या आपने उसे पाया हैं
सदाचार ही तो सबका विलक्षण सार हैं
सब बातों में जो सबसे ख़ास बात हैं

नव्हे पिंडज्ञाने नव्हे तत्त्वज्ञाने |
समाधान काही नव्हे तानमाने ||
नव्हे योगयागे नव्हे भोगत्यागे |
समाधान ते सज्जनाचेनि योगे ||१५३||
जीवशास्त्र दर्शनशास्त्र से नहीं होगा
संगीत से भी समाधान नहीं होगा
योग से नहीं भोगत्याग से नहीं
समाधान तो सज्जनों के संग से ही मिलेगा

महावाक्य तत्त्वादिके पंचकर्णे |
खुणे पाविजे संतसंगे विवर्णे ||
द्वितीयेसि संकेत जो दाविजेतो |
तया सांडुनी चंद्रमा भाविजेतो ||१५४||
महावाक्य तत्व और शास्त्र
संतों की करुणा से ही समझेंगे
संकेत के साधन अंतिम लक्ष्य नहीं हैं
लेकिन साध्य तक तो साधन ही ले जायेंगे

दिसेना जनीं तेची शोधूनि पाहे |
बरे पाहता गूज तेथेचि आहे ||
करीं घेउं जाता कदा आढळेना |
जनीं सर्व कोंदाटले ते कळेना ||१५५||
जो लोगों में नहीं दिखता हैं उसे खोजे
वही पर तो सब राज छुपे हुए हैं
यदि मलकियत करने जाओगे तो पकड़ न पाओगे
सब जनों में व्याप्त हैं पर समझ के बाहर

म्हणे जाणता तो जनीं मूर्ख पाहे |
अतर्कासि तर्की असा कोण आहे ||
जनीं मीपणे पाहता पाहवेना |
तया लक्षिता वेगळे राहवेना ||१५६||
जो कहता हैं मेरी समझ में आ गया वो बेवकूफ हैं
यहाँ तर्क वितर्क और समझ की बात नहीं हैं
लोगों में अहंकारयुक्त दृष्टी से देखने से न दिखेगा
यदि उसपर ध्यान हैं तो बिलग न रह पाओगे

बहू शास्त्र धुंडाळिता वाड आहे |
जया निश्चयो येक तोही न साहे ||
मती भांडती शास्त्रबोधे विरोधे |
गती खुंटती ज्ञानबोधे प्रबोधे ||१५७||
बहोत शास्त्र ढूंढने से कोई लाभ नहीं
ढूंढते ढूंढते कहीं निश्चय न छूट जाए
शास्त्रों में तो परस्पर विरोधी बाते मिलेगी
इस प्रकार का बोध तो रुकावट पैदा करेगा

श्रुती न्याय मीमांसके तर्कशास्त्रे |
स्मृती वेद वेदांतवाक्ये विचित्रे ||
स्वये शेष मौनावला स्थीर राहे |
मना सर्व जाणीव सांडून पाहे ||१५८||
श्रुति न्यायशास्त्र मीमांसा तर्कशास्त्र
स्मृति वेद वेदांत काफी जटिल हैं
हजार मुखोवाला शेष भी मौन हो जाता हैं
तो आप तो जानकार होने का दावा छोड़ ही दो

जेणे मक्षिका भक्षिली जाणिवेची |
तया भोजनाची रुची प्राप्त कैची ||
अहंभाव ज्या मानसीचा विरेना |
तया ज्ञान हे अन्न पोटी जिरेना ||१५९||
जिसने अहंकार की मक्खी को निगला
उसे भोजन का स्वाद पूछने से क्या लाभ
अहंकार जबतक कायम हैं
जो ज्ञान हासिल किया हैं वो हजम नहीं होगा

नको रे मना वाद हा खेदकारी |
नको रे मना भेद नना विकारी ||
नको रे मना शीकवू पूढिलांसी |
अहंभाव जो राहिला तूजपासी ||१६०||
खेद को उत्पन्न करने वाला वाद किस काम का
वह भेद दृष्टि किस काम की जो अनेक विकार पैदा करती हैं
सामनेवाले को सिखाने से क्या लाभ
जो खुद हमारे पास इतना अहंकार हैं

Saturday, 25 June 2016

समर्थ रामदास स्वामी कृत मनाचे श्लोक १४१-१५० हिंदी अनुवाद सहित

म्हणे दास सायास त्याचे करावे |
जनीं जाणता पाय त्याचे धरावे ||
गुरू अंजनेवीण ते आकळेना |
जुने ठेवणे मीपणे आकळेना ||१४१||
जिन्हे स्वरूपबोध हुआ हैं उनकी सेवा करे
जिन्होंने जान लिया उनकी चरणसेवा करे 
गुरु की कृपा से ही स्वरूपबोध होगा 
अहंकारवश स्वरुप समझ न पाओगे

कळेना कळेना कळेना ढळेना |
ढळे नाढळे संशयोही ढळेना ||
गळेना गळेना अहंता गळेना |
बळे आकळेना मिळेना मिळेना ||१४२||
समझता नहीं हैं उलझन बरक़रार हैं 
संशय तो हटते हट नहीं रहा 
अहंकार के गलने की कोई सम्भावना नहीं 
हमारी मर्जी से समझेगा नहीं मिलेगा नहीं

अविद्यागुणे मानवा ऊमजेना |
भ्रमे चूकले हीत ते आकळेना ||
परीक्षेविणे बांधले दृढ नाणे |
परी सत्य मिथ्या असे कोण जाणे ||१४३||
अविद्या के कारण समझ में नहीं आता हैं
भ्रमवश हित समझ में नहीं आ रहा हैं 
बिना जांच के सिक्के को खरा मान लिया
किसे पता सिक्का खरा हैं या खोटा

जगी पाहता साच ते काय आहे |
अती आदरे सत्य शोधून पाहे ||
पुढे पाहता पाहता देव जोडे |
भ्रम भ्रांति अज्ञान हे सर्व मोडे ||१४४||
दुनिया में सत्य का पता करे 
सादर सत्य का अन्वेषण करे 
आगे धीरे धीरे परमात्मा से जुड़ जाओगे
भ्रम भ्रान्ति अज्ञान सब छूट जायेंगे

सदा वीषयो चिंतिता जीव जाला |
अहंभाव अज्ञान जन्मास आला ||
विवेके सदा स्वस्वरूपी भरावे |
जिवा ऊगमी जन्म नाही स्वभावे ||१४५||
जीव को तो विषयों का चिंतन लगा रहता हैं 
इसीसे अहंकार और अज्ञान उदित होता हैं 
हमेशा विवेकसे अपने मूल स्वरुप में रहे 
देहासक्ति हमारा स्वभाव नहीं हैं

दिसे लोचनी ते नसे कल्पकोडी |
अकस्मात आकारले काळ मोडी ||
पुढे सर्व जाईल काही न राहे |
मना संत आनंत शोधूनि पाहे ||१४६||
जो प्रतीत हो रहा हैं वो टिकेगा नहीं 
जो कुछ भी हैं उसे अकस्मात् काल भंग करेगा 
आगे कुछ टिकने वाला नहीं 
हे मन अनन्तस्वरूप संतों की खोज कर

फुटेना तुटेना चळेना ढळेना |
सदा संचले मीपणे ते कळेना ||
तया एकरूपासि दूजे न साहे |
मना संत आनंत शोधूनि पाहे ||१४७||
टूट फुट चलना ढलना कुछ नहीं 
अचल हैं लेकिन अहंकारवश न समझेगा 
वो जो एक हैं वहां कोई दूसरा नहीं हैं 
हे मन अनन्तस्वरूप संतों की खोज कर

निराकार आधार ब्रह्मादिकांचा |
जया सांगता शीणली वेदवाचा ||
विवेके तदाकार होऊनि राहे |
मना संत आनंत शोधूनि पाहे ||१४८||
जो निराकार ब्र्ह्मादिकों का आधार हैं
जिसका वर्णन करते हुए वेद मौन हो जातें हैं 
विवेकसे उससे तदाकार हो जा 
हे मन अनन्तस्वरूप संतों की खोज कर

जगी पाहता चर्मचक्षी न लक्षे |
जगी पाहता ज्ञानचक्षी निरक्षे ||
जनीं पाहता पाहणे जात आहे |
मना संत आनंत शोधूनि पाहे ||१४९||
देह की आँखों से वह तत्व ना दिखेगा 
उसे तो सीधा अनुभव करना होगा 
इधर उधर ढूंढने से समय जाया होगा 
हे मन संतों की करुणा से उस अनन्त को खोज

नसे पीत ना श्वेत ना श्याम काही |
नसे व्यक्त अव्यक्त ना नीळ नाही ||
म्हणे दास विश्वासता मुक्ति लाहे |
मना संत आनंत शोधूनि पाहे ||१५०||
वह तत्व पीत श्वेत या श्याम नहीं हैं 
वह व्यक्त अव्यक्त या नीला नहीं हैं 
स्वामी रामदास मुक्ति का विश्वास दिलाते हैं 
हे मन संतों की करुणा से उस अनंत को खोज










समर्थ रामदास स्वामी कृत मनाचे श्लोक १३१-१४० हिंदी अनुवाद सहित

भजावा जनीं पाहता राम एकू |
करी बाण एकू मुखी शब्द एकू ||
क्रिया पाहता उद्धरे सर्व लोकू |
धरा जानकीनायकाचा विवेकू ||१३१||
लोगों के बीच हम एक राम का ही भजन करे 
रामका एक एक शब्द तो एक एक बाण हैं 
राम कथा सब लोकों का उद्धार कर सकती हैं 
जानकीनायक राम के विवेक को धारण करे

विचारूनि बोले विवंचूनि चाले |
तयाचेनि संतप्त तेही निवाले ||
बरे शोधल्यावीण बोलो नको हो |
जनीं चालणे शुद्ध नेमस्त राहो ||१३२||
सोचसमझकर बोले विचारपूर्वक चले 
जो लोग क्रोधित हैं उन्हें शांत करे 
जब तक सत्य पकड़ में नहीं आता मौन रहे 
आपका चाल चलन शुद्ध और प्रमाणिक हो

हरीभक्त वीरक्त विज्ञान राशी |
जेणे मानसी स्थापिले निश्चयासी ||
तया दर्शने स्पर्शने पुण्य जोडे |
तया भाषणे नष्ट संदेह मोडे ||१३३||
हरिभक्त याने वैराग्य और समता का महा निधि 
हरिभक्त माने जिसने ह्रदय में निश्चय की स्थापना की हैं 
जिसके स्पर्श और दर्शन से पुण्यों का निर्माण होता हैं 
जिसके साथ सम्भाषण से सब संदेहों का अंत होता हैं

नसे गर्व आंगी सदा वीतरागी |
क्षमा शांति भोगी दयादक्ष योगी ||
नसे लोभ ना क्षोभ ना दैन्यवाणा |
इही लक्षणी जाणिजे योगिराणा ||१३४||
जिसमे कोई गर्व नहीं और जो वीतरागी हैं
जो क्षमा और शांति में स्थित हैं और दया से युक्त हैं 
जिसमे कोई लोभ क्षोभ या दीनता नहीं हैं 
यहीं तो योगीराज के लक्षण हैं

धरी रे मना संगती सज्जनाची |
जेणे वृत्ति हे पालटे दुर्जनाची ||
बळे भाव सद्बुद्धि सन्मार्ग लागे |
महाक्रूर तो काळ विक्राळ भंगे ||१३५||
सज्जनों की संगती में रहे 
जिससे दुर्जनों में भी बदलाव आता हैं 
भक्ति और सद्बुद्धि जागती है सन्मार्ग मिलता हैं
महाक्रूर और विकराल काल का नाश होता हैं

भये व्यापिले सर्व ब्रह्मांड आहे |
भयातीत ते संत आनंत पाहे ||
जया पाहता द्वैत काही दिसेना |
भयो मानसी सर्वथाही असेना ||१३६||
यह सब ब्रह्माण्ड तो भयकंपित हैं 
जो अनन्त से जुड़ गया हैं वो संत तो भयातीत हैं 
जिसकी दृष्टी में कोई द्वैतभाव नहीं हैं 
जिसके मन में भय का सर्वथा अभाव है

जिवा श्रेष्ठ ते स्पष्ट सांगोनि गेले |
परी जीव अज्ञान तैसेचि ठेले ||
देहेबुद्धिचे कर्म खोटे टळेना |
जुने ठेवणे मीपणे आकळेना ||१३७||
श्रेष्ठजनों ने सब बातें स्पष्ट कही हैं 
लेकिन हमारा अज्ञान तो कायम बना हुआ हैं 
देहबुद्धि असार हैं लेकिन छूटती नहीं
हमारा स्वरुप अहंकार के कारण समझ के बाहर हैं

भ्रमे नाढळे वित्त ते गुप्त जाले |
जिवा जन्मदारिद्र्य ठाकूनि आले ||
देहेबुद्धिचा निश्चयो ज्या टळेना |
जुने ठेवणे मीपणे आकळेना ||१३८||
अचल सम्पदा भ्रम के कारण गुप्त हो गयी
ये किस दारिद्र्य ने जीव को जकड लिया 
जो देहबुद्धि के ऊपर नहीं उठ सकता 
अहंकारवश अपने स्वरुप को नहीं समझ सकता

पुढे पाहता सर्वही कोंदलेसे |
अभाग्यास हे दृश्य पाषाण भासे ||
अभावे कदा पुण्य गाठी पडेना |
जुने ठेवणे मीपणे आकळेना ||१३९||
वही तो एक तत्व सर्वव्यापी हैं 
जो अभागा हैं उसे हर जगह जड़ता दिखती हैं
यदि भाव ही नहीं हैं तो कोई पुण्यलाभ नहीं 
अहंकारवश स्वरुप समझ में नहीं आता

जयाचे तया चूकले प्राप्त नाही |
गुणे गोविले जाहले दुःख देही ||
गुणावेगळी वृत्ति तेही वळेना |
जुने ठेवणे मीपणे आकळेना ||१४०||
स्वरुप छीना नहीं जा सकता 
गुणों के अधीन होने से देहि बने दुखी हुए 
अब तो प्रवृत्ति गुणों से हटती नहीं 
अहंकारवश स्वरुप समझ में नहीं आता